आरती गुरु कान्हा बाबा
आरती केवल ब्रम्ह की कीजै, अमृत नाम सदा रस पीजे ।।टेक।।
चन्द्र न पवन नहि स्वासा, जहां पहुंचे कोई बिरले दासा ।।1।।
सबदूर पूरण अलख अनन्दा, ज्यों दल मद्धे दीसे चन्द्रा ।।2।।
तीरथ व्रत उर प्रतिमा की आसा, वे नर पावे गर्भ निवासा ।।3।।
आलम डूबो ब्रम्ह के माही, अन्धी दुनिया सूझत नाहीं ।।4।।
सब घट व्यापक सबही के पासा, ज्यों फूल मद्धे रहत है वासा ।।5।।
कहें रामदासजी, अदेख लखावे जौनी सकट बहुर न जावे ।।6।।
आरती पारी ब्रम्ह तुम्हारी, तुम से काया राम बनी हमारी ।।टेक।।
काया नगरी में तेरह दरवाजे, तीन गुप्त दस प्रगट विराजे ।1।
अष्टकमल माहीं प्रभुजी को वासा, मन दीपक जहां तेज प्रकाशा ।2।
भूली दुनिया प्रतिभा को ध्यावे, जौनी संकट फिर-फिर आवें ।3।
निगुण ब्रम्ह में सचराचारा, जाकी तरंग उठी संसारा ।4।
आखंड ब्रम्ह सकल से न्यारा, कोट भतनु जहां है उजयारा ।5।
कहें रामदासजी, राखो विश्वासा एक ही ब्रम्ह सकल के पासा ।6।
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