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Thursday 21 April 2016
प्रसिद्ध हनुमान मंदिर
हनुमान जी का जन्म
स्कन्दपुराण के उल्लेखानुसार भगवान महादेव ही भगवान विष्णु के श्री राम अवतार की
सहायता के लिए महाकपि हनुमान बनकर अपने ग्यारहवें रुद्र के रूप में अवतरित हुए | यही कारण है कि हनुमान जी को
रुद्रावतार भी कहा जाता है | इस उल्लेख कि पुष्टि श्रीरामचरित मानस, अगत्स्य संहिता, विनय पत्रिका और
वायु पुराण आदि में भी की गयी है |
हनुमान जी के जन्म को लेकर विद्वानों में अलग-अलग मत हैं | परन्तु हनुमान जी के अवतार को
लेकर तीन तिथियाँ सर्वमान्य हैं |
इनमें से पहली तिथि है: चैत्र एकादशी
"चैत्रे मासे सिते
पक्षे हरिदिन्यां मघाभिदे |
नक्षत्रे स समुत्पन्नौ हनुमान रिपुसूदनः | |"
इस श्लोक के अनुसार हनुमान जी का जन्म चैत्र शुक्ल की एकादशी को हुआ था|
एक दुसरे मत के अनुसार श्री हनुमान जी का जन्म चैत्र मास की पूर्णिमा तिथि को हुआ
था | इस मत को निम्नलिखित
श्लोक से समझा जा सकता है:
"महाचैत्री पूर्णीमाया
समुत्पन्नौ अन्जनीसुतः |
वदन्ति कल्पभेदेन बुधा इत्यादि केचन | |"
वैसे, श्री हनुमान जी के
अवतरण को लेकर एक तीसरा मत भी है, जोकि नीचे दिए गए श्लोक में उल्लिखित है:
"ऊर्जे कृष्णचतुर्दश्यां
भौमे स्वात्यां कपीश्वरः |
मेष लग्ने अन्जनागर्भात प्रादुर्भूतः स्वयं शिवा | |"
इस श्लोक के अनुसार हनुमान जी के अवतार की तिथि कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी
तिथि ही है|
अधिकतर विद्वान् व ज्योतिषी भी कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को ही श्री हनुमान जी के
अवतार की तिथि मानते हैं |
श्री हनुमान जी के अवतार कि तिथियों के समान ही उनके अवतार की कथाएँ भी विभिन्न
हैं| इनमें प्रमुख रूप
से दो ही कथाएँ सर्वमान्य हैं | उन कथाओं को यहाँ आप सब के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है |
पहली कथा:
विवाह के बहुत दिनों के बाद भी जब माता अंजना को संतान सुख प्राप्त नहीं हुआ तब
उन्होंने निश्चय करके अत्यंत कठोर तप किया | उन्हें तप करता देख महामुनि मतंग ने उनसे उनके उस तप का कारण पूछा | तब माता अंजना ने कहा, "हे मुनिश्रेष्ठ! केसरी नामक
वानरश्रेष्ठ ने मुझे मेरे पिता मांगकर मेरा वरण किया| मैंने अपने पति के संग में सभी
सुखों व वैभवों का भोग किया परन्तु संतान सुख से अभी तक वंचित हूँ | मैंने बहुत से व्रत और उपवास
भी किये परन्तु संतान की प्राप्ति नहीं हुई | इसीलिए अब मैं कठोर तप कर रही हूँ | मुनिवर! कृपा करके मुझे पुत्र प्राप्ति का कोई उपाय बताएं |"
महामुनि मतंग ने उन्हें वृषभाचल भगवान वेंकटेश्वर के चरणों में प्रणाम कर के आकाश
गंगा नामक तीर्थ में स्नान कर, जल ग्रहण करके वायुदेव को प्रसन्न करने को कहा |
माता अंजना ने मतंग ऋषि द्वारा बताई गयी विधि के अनुसार वायु देव को प्रसन्न करने
के लिए संयम, धैर्य, श्रद्धा व विशवास के साथ तप
आरम्भ किया| उनके तप से प्रसन्न
होकर वायुदेव ने मेष राशि सूर्य की स्थिति के समय चित्र नक्षत्र युक्त पूर्णिमा के
दिन उन्हें दर्शन देकर वरदान मांगने को कहा | तब माता अंजना ने उत्तम पुत्र का वरदान माँगा | वायुदेव ने वरदान देते हुए माता अंजना को उनके पिछले
जन्म का स्मरण कराते हुए कहा, "हे अंजना! तुम्हारे गर्भ से एक अत्यंत बलशाली एवं तेजस्वी पुत्र जन्म लेगा, अपितु स्वयं भगवान शंकर ही ग्यारहवें
रुद्र के रूप में तुम्हारे गर्भ से अवतरित होंगे| पिछले जन्म में तुम पुन्जिकस्थला नामक अप्सरा थी
और मैं तुम्हारा पति था परन्तु ऋषि श्राप के कारण हमें वियोग सहना पड़ा और तुम इस जनम
में अंजना के रूप में इस धरती पर आई हो, इस नाते मैं तुम्हारे होने वाले पुत्र का धर्म-पिता कहलाऊंगा तथा तुम्हारा वो पुत्र
पवनपुत्र नाम से भी तीनो लोकों में जाना जाएगा|"
दूसरी कथा:
रावण का वध करने के लिए जब
भगवान विष्णु ने श्री राम अवतार लिया, तब अन्य देवतागण भी श्रीराम
जी की सेवा के लिए अलग-अलग रूपों में प्रकट हुए | भगवान शंकर ने पूर्वकाल में भगवान विष्णु से दास्य का वरदान माँगा था जिसे पूर्ण
करने के लिए वे भी अवतार लेना चाह रहे थे परन्तु उनके समक्ष धर्मसंकट यह था कि जिस
रावण का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने श्रीराम का रूप लिया था, वह रावण स्वयं उनका (शिव जी का) परम भक्त था | अपने परम भक्त के विरूद्ध वे श्रीराम जी की सहायता कैसे कर सकते
थे, ऊपर से रावण को शिव जी की ओर से अभय का वरदान भी
प्राप्त था| रावण ने अपने दस सिरों को अर्पित कर शिव जी के दस
रुद्रों को पहले ही संतुष्ट कर रखा था, अतः भगवान शंकर अपने उन दस
रुद्रों के रूप में भी श्रीराम जी की सहायता नहीं कर सकते थे, अतः उन्होंने अपने ग्यारहवें रुद्र के रूप में अवतार लिया जो
कि हनुमान नाम सारे जग में विख्यात है | हनुमान रूप में भगवान शंकर
ने श्री राम जी की सेवा भी की तथा रावण के वध में उनकी सहायता भी की |
ये दोनों कथाएँ श्री हनुमान
जी के अवतरण की प्रमाणिकता सिद्ध करती हैं |
इस प्रकार भगवान शंकर ने ही
हनुमान जी के रूप में समस्त देवी-देवताओं एवं समस्त मानवजाति का कल्याण किया है | हनुमान जी आज भी इस धरती पर विद्यमान हैं और पापियों से अपने
भक्तों की रक्षा कर रहे हैं तथा उनकी आराधना एवं उपासना से बड़े से बड़े कष्ट बड़ी
शीघ्रता से दूर हो जाते हैं |
"जय श्री राम"
श्री हनुमान चालीसा
॥दोहा॥
श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥
बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार ॥
॥चौपाई॥
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर ।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥१॥
राम दूत अतुलित बल धामा ।
अञ्जनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥२॥
महाबीर बिक्रम बजरङ्गी ।
कुमति निवार सुमति के सङ्गी ॥३॥
कञ्चन बरन बिराज सुबेसा ।
कानन कुण्डल कुञ्चित केसा ॥४॥
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै ।
काँधे मूँज जनेउ साजै ॥५॥
सङ्कर सुवन केसरीनन्दन ।
तेज प्रताप महा जग बन्दन ॥६॥
बिद्यावान गुनी अति चातुर ।
राम काज करिबे को आतुर ॥७॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया ।
राम लखन सीता मन बसिया ॥८॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा ।
बिकट रूप धरि लङ्क जरावा ॥९॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे ।
रामचन्द्र के काज सँवारे ॥१०॥
लाय सञ्जीवन लखन जियाये ।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥११॥
रघुपति कीह्नी बहुत बड़ाई ।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥१२॥
सहस बदन तुह्मारो जस गावैं ।
अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं ॥१३॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा ।
नारद सारद सहित अहीसा ॥१४॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते ।
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥१५॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीह्ना ।
राम मिलाय राज पद दीह्ना ॥१६॥
तुह्मरो मन्त्र बिभीषन माना ।
लङ्केस्वर भए सब जग जाना ॥१७॥
जुग सहस्र जोजन पर भानु ।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥१८॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं ।
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥१९॥
दुर्गम काज जगत के जेते ।
सुगम अनुग्रह तुह्मरे तेते ॥२०॥
राम दुआरे तुम रखवारे ।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥२१॥
सब सुख लहै तुह्मारी सरना ।
तुम रच्छक काहू को डर ना ॥२२॥
आपन तेज सह्मारो आपै ।
तीनों लोक हाँक तें काँपै ॥२३॥
भूत पिसाच निकट नहिं आवै ।
महाबीर जब नाम सुनावै ॥२४॥
नासै रोग हरै सब पीरा ।
जपत निरन्तर हनुमत बीरा ॥२५॥
सङ्कट तें हनुमान छुड़ावै ।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥२६॥
सब पर राम तपस्वी राजा ।
तिन के काज सकल तुम साजा ॥२७॥
और मनोरथ जो कोई लावै ।
सोई अमित जीवन फल पावै ॥२८॥
चारों जुग परताप तुह्मारा ।
है परसिद्ध जगत उजियारा ॥२९॥
साधु सन्त के तुम रखवारे ।
असुर निकन्दन राम दुलारे ॥३०॥
अष्टसिद्धि नौ निधि के दाता ।
अस बर दीन जानकी माता ॥३१॥
राम रसायन तुह्मरे पासा ।
सदा रहो रघुपति के दासा ॥३२॥
तुह्मरे भजन राम को पावै ।
जनम जनम के दुख बिसरावै ॥३३॥
अन्त काल रघुबर पुर जाई ।
जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई ॥३४॥
और देवता चित्त न धरई ।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ॥३५॥
सङ्कट कटै मिटै सब पीरा ।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥३६॥
जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ॥३७॥
जो सत बार पाठ कर कोई ।
छूटहि बन्दि महा सुख होई ॥३८॥
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा ।
होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥३९॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा ।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥४०॥
॥दोहा॥
पवनतनय सङ्कट हरन मङ्गल मूरति रूप ।
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप ॥
Saturday 16 April 2016
ग्राम सभा का अयोजन ग्राम उदय से भारत उदय के तहत
सोडलपुर ग्राम पंचायत में राज्य शासन द्वारा भीमराव अंबेडकर जयंती से शुरू की गई ग्राम उदस से भारत उदय अभियानके तहत ग्रामसभाओ का आयोजन चल रहा है। सोडलपुर ग्राम पंचायत में शनिवार को ग्रामसभा के दूसरे दिन सारे मुद्दो को छोड़कर गांव के बीपीएल कार्ड धारियों पर चर्चा की गई। ग्राम में 578 बीपीएल कार्ड धारी है जिसमें अपात्र हितग्राहीयों को सूची से हटाने का प्रस्ताव लिया गया है। 168 परिवारों को अब बीपीएल योजना का लाभ नही मिलेगा। पिछले कई वर्षो से इन परिवारो को शासन की ओर से लाभ दिया जा रहा था। रविवार को ग्रामसभा का अंतिम दिवस रहेगा। ग्राम सभा में नोडल अधिकारी ग्राम पटवारी अवनीश शुक्ला, कृषि अधिकारी बीएम यादव, पशु चिकित्सक डां. नरेन्द्र जोशी, सरपंच सुरेश उईके, सचिव रामविलास तोमर, सहायक सचिव सुमित चैधरी, पंच आदित्य पटेल, राजीव साबू, रामदीन राठौर सहित आंगनबाड़ी कार्यकर्ता एवं ग्रामीण मौजूद थे।
Friday 15 April 2016
Sunday 3 April 2016
आस्था और विश्वास का त्यौहार है गणगौर
हाईटेक होते युग में बदला गणगौर का स्वरूप
आस्था और विश्वास का त्यौहार है रनुबाई
करीब दो दशक पहले सादगी के रूप में मनाया जाने वाला गणगौर उत्सव का स्वरूप हाईटेक होते जमाने के साथ बदल गया हालाकि इस पर्व को मनाने में लोगो की आस्था और विश्वास तो वही है लेकिन इसकी व्यवस्था और रंगीन चमक दमक पर भी अब लाखो रूपये खर्च किये जा रहे है।
आकर्षक पंडाल, लाईटिंग व रोशनी पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। आधुनिककरण के इस दौर में रात्रि के दौरान होने वाले रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमो में इसकी झलक साफ दिखाई देती है और नजारा भी बिल्कुल अगल और बदला हुआ दिखाई देता है। मालूम हो कि गणगौर पर्व भुआणा अंचल में वर्ष में दो बार चैत्र और बैशाख माह में मनाया जाता है। रनुबाई और धनियर राजा के इस त्यौहार में आस्था व विश्वास तो वही है लेकिन अब बदलते परिवेश के साथ यह उत्सव हाईटेक होता जा रहा है। रंगीन चकक-दमक वाली वेशभूषा, मंहगे पंडाल, डीजे साउंड ने इस उत्सव ने आस्था के साथ उल्लास ओर भी बड़ा दिया है। इन दिनो क्षेत्र सहित पूरे जिले भर में रनुबाई को पावनी बुलाया गया है। नौ दिनो तक गणैगौर उत्सव की धूम रहेगी।
शिव पार्वती का पर्व
गणगौर उत्सव मूलतः शिव व पार्वती का त्यौहार है यह पर्व गुजरात, राजस्थान की मिली जुली संस्कृति का पर्व है। मध्यप्रदेश में विशेषकर मालवा, निमाड़ और भुआंणा अंचल में इसे धूमधाम के साथ मनाया जाता है। भोपाल से लेकर इन्दौर जैसे बड़े महानगरो में भी इस आयोजन की धूम रहती है। इस आयोजन में धनियर राजा और रनुबाई के सुन्दर भजनो मधुर गीतो की धुन पर महिलाओं व पुरूषो का आकर्षक नृत्य व छालरा देखते ही बनता है जिससे ग्रामीण अंचल का बातावरण अलग ही निर्मित हो जाता है। मनोकामनाऐं पूरी होने पर लोग रनुबाई को पावनी बुलाते है।
ऐसे होती है पूजा अर्चना
बड़े बुर्जग बताते है कि रनुबाई माता पार्वती व धनियर राजा भगवान शिव के रूप में पूजे जाते है आयोजक परिवार के मुखिया रनुबाई के माता पिता बनते है नांदवा की सेवामाय मनोरमा पारे बताती है कि 9 दिनो तक विशेष पूजा अर्चना की जाती है। घर के एक कमरे में ज्वारे बोये जाते है जिसकी सेवा के लिये एक सेवामाय भी होती है वही इन ज्वारे की 9 दिनो तक सुहागन महिलाओं द्वारा पूजा अर्चना की जाती है जिसे गौर पूजना कहते है वही महिलाऐं दिन में आम के बगीचे में जाकर पाती भी खेलती है।
आठवे दिन लग्न, नौवे दिन विदाई
गणगौर महाउत्सव के दौरान आठवे दिन धनियर राजा के रथो को विशेष तरीके से सजाकर विधि विधान के साथ कुऐ पर जाकर लग्न लगाई जाती है। नौवे दिन प्रसाद और भंडारे का आयोजन कर चल समारोह निकालकर धनियर राजा और रनुबाई के रथ व ज्वारो की गांवो में घर-घर पूजा की जाती है इसके बाद नदी पर जाकर विसर्जन किया जाता है विदाई के दौरान श्रद्धालु मानो अपनी बेटी की विदाई की जाती है। आंखो से वर्वस ही यह आंसू झलक पड़ते है।
Friday 1 April 2016
क्षत्रिय मारवाड़ी समाज का इतिहास
समाज का इतिहास
विद्धानों ने जाति की परिभाषा भिन्न-भिन्न दी है। बम उन परिभाषाओं पर विस्तार से विचार न कर यही बतलाते है कि जाति मुख्यत: जन्म के आधार पर सामाजिक श्रेणी बद्धता और खण्ड विभाजन की वह सक्रिय व्यवस्था है, जो खाने, पीने, विवाह , व्यवसाय और सामाजिक संम्पर्क के सम्बन्ध में अनेक या कुछ बंधनों को अपने सदस्यों पर लागु करती है। भारत में जाति प्रथा सैकडों वर्षो से प्रचलित है और विदेशी विद्धानो का ध्यान इस संस्था की और आकर्षित करती रही है। भारत में एसा कोई सामाजिक समूह ऐसा नहीं है जो इसके प्रभाव से अपने को मुक्त रख सका है। आज भारत में लगभग तीन हजार जातियां और उपजातियां है। उन्हीं में से एक माली जाति है जो विभिन्न प्रन्त में माली, सैनी, शाक्य, कुशवाहा, मौर्य आदि नामों से प्रसिद्ध है। राजस्थान में माली मुख्यत: माली के अलावा सैनी आदि कहलाते है।
जानकारी - http://malisamajahmedabad.com/ के अनुसार
माली समाज का इतिहास
माली
” शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द माला से हुई है , एक पौराणिक कथा के
अनुसार माली कि उत्पत्ति भगवान शिव के कान में जमा धुल (कान के मेल ) से
हुई थी ,वहीँ एक अन्य कथा के अनुसार एक दिन जब पार्वती जी अपने उद्यान में
फूल तोड़ रही थी कि उनके हाथ में एक कांटा चुभने से खून निकल आया , उसी खून
से माली कि उत्पत्ति हुई और वहीँ से माली समाज अपने पेशे बागवानी से जुडा
|माली समाज में एक वर्ग राजपूतों कि उपश्रेणियों का है |विक्रम सम्वत १२४९
(११९२ इ ) में जब भारत के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वी राज चौहान के पतन के
बाद जब शहाबुद्दीन गौरी और मोहम्मद गौरी शक्तिशाली हो गए और उन्होंने
दिल्ली एवं अजमेर पर अपना कब्ज़ा कर लिया तथा अधिकाश राजपूत प्रमुख या तो
साम्राज्य की लड़ाई में मारे गए या मुग़ल शासकों द्वारा बंदी बना लिए गए ,
उन्ही बाकि बचे राजपूतों में कुछ ने मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया और कुछ
राजपूतों ने बागवानी और खेती का पेशा अपनाकर अपने आप को मुगलों से बचाए रखा
, और वे राजपूत आगे चलकर माली कहलाये !
माली
समाज का इतिहास किसी भी जाती, वंश एव कुल परम्परा के विषय मे जानकारी के
लिये पूर्व इतिहास एव पूर्वजो का ज्ञान होना अति आवश्यक है| इसलिए सैनी
जाती के गोरव्पूर्ण पुरुषो के विषय मे जानकारी हेतु महाभारत काल के पूर्व
इतिहास पर द्रष्टि डालना अति आवश्यक है| आज से ५१०६ वर्ष पूर्व द्वापरकाल
के अन्तिम चरण मे य्द्र्वंश मे सचिदानंद घन स्वय परमात्मा भगवान् श्रीकृषण
क्षत्रिय कुल मे पैदा हुए और युग पुरुष कहलाये| महाभारत कई युध्दोप्रांत
यदुवंश समाप्त प्राय हो गया था| परन्तु इसी कुल मई महाराज सैनी जिन्हे
शुरसैनी पुकारते है| जो रजा व्रशनी के पुत्र दैव्मैघ के पुत्र तथा वासुदेव
के पिता भगवन श्रीकिशन के दादा थे| इन्ही महाराज व्रशनी के छोटे पुत्र
अनामित्र के महाराज सिनी हुये, इस प्रकार महाराज शुरसैनी तथा सिनी दोनों
काका ताऊ भाई थे| इन्ही दोनों महापुरुषों के वंशज हम लोग सैनी क्षत्रिय
कहलाये|
कालांतर
मई वृशनी कुल का उच्चारण सी वृ अक्षर का लोप हो गया और षैणी शब्द उच्चारित
होने लगा जो आज भी उतरी भारत के पंजाब एव हरियाणा प्रांतो मे सैनी शब्द के
एवज मे अनपढ़ जातीय बंधू षैणी शब्द ही बोलते है, और इसी सिनी महाराज के
वंश परम्परा के अपने जातीय बह्धू सिनी शब्द के स्थान पर सैनी शब्द का
उच्चारण करने लगे है| जो सर्वथा उचित और उत्तम है| कालांतर मे वृशनि
गणराज्य संगठित नहीं रहा और भिन्न भिन्न कबीलों मे विभाजित होकर बिखर गया|
किसी भी भू भाग पर इसका एकछत्र राज्य नहीं रहा किन्तु इतिहास इस बात का
साक्षी है| की सैनी समाज के पूर्वज क्षत्रिय वंश एव कुल परम्परा मे अग्रणी
रहे है|
महाभारत
काल के बाद सैनी कुल के अन्तिम चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रेमादित्य हुए है
जिन्हे नाम पर आज भी विक्रम सम्वत प्रचलित है| इससे यह स्पष्ट है की सैनी
जाती का इतिहास कितना गोरवपूर्ण रहा है| यह जानकर सुखद अनुभूति होती है की
हमारे पूर्वज कितने वैभवशाली वीर अजातशत्रु थे| भारत राष्ट्र संगठित न रहने
पर परकीय विदेशी शासको की कुद्रष्टि का शिकार हुआ तथा कुछ शक्तिशाली
कबीलों ने भारत को लुटने हेतु कई प्रकार के आक्रमण शुरू कर दिये, यूनान देश
के शासक सिकंदर ने प्रथम आक्रमण किया किन्तु पराजित होकर अपने देश यूनान
वापस लोट गया|
इसके
बाद अरब देशो के कबीलों ने भारत पर आक्रमण कर लूटपाट शुरू कर दी और भारत
पर मुस्लिम राज्य स्थापित कर कई वर्षो तक शासन किया| इसके बाद यूरोप देश के
अग्रेज बडे चालाक चतुर छलकपट से भारत पर काबिज हो गये| अन्ग्रजो ने भारत
के पुराने इतिहास का अध्यन करने यहा के पूर्व शासको एव जातियों के इतिहास
की जानकारी हेतु कई इतिहासकारों को भारत की भिन्न प्रांतो मे इतिहास संकलन
हेतु नियुक्त किया | एक प्रसिध्द अंग्रेज इतिहासकार ‘परजिटर’ ने भारत की
पोरानिक ग्रंथो के आधार पर अपने वृशनी वंश का वृक्ष बिज तैयार किया जिसका
भारत के प्रसिध्द इतिहासकार डा.’ए.डी.पुत्स्लकर ‘ एम.ए.,पी एच डी ने भी इस
मत का प्रतिपादन किया है| वृशनी (सैनी) जाती के महाराज वृशनी के बाबत
अग्रेजी मे लिखा ” Vrishanis youngest son Anamitra have a son and their
desiendents were called ” Saiyas “(See Anicient Indian Hostorical
Traditio 1922 page 104-105-105)” महाराज वृश्निजी के चोटी पुत्र अनामित्र
के महाराज सीनी हुये इसी सिन्नी शब्द का पर्यायवाची शब्द ‘सैनी’ हुआ जिनकी
वंशज कहलाते है| (देखे भारत के प्राचीन इतिहास के संकलन मे सं १९२२ मे पेज
नं. १०४ सी १०६ तक )|
इस
प्रकार भारत के प्राचीन ग्रंथ इतिहास पुरान तथा महाभारत के अनुशासन पर्व
मे भी महाराज सैनी के सम्बन्ध मे उल्लेख मिलता है| १. वायु पुराण अध्याय ३७
शुरसैनी महाराजर्थी एक गुनोतम तथा श्लोक १२९ जितेन्द्रिय सत्यवादी प्रजा
पालक तत्पर : २. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय १४९ ‘सदगति स्तक्रती संता
सदगति सत्य न्याय परायण’ तथा श्लोक ८८ मे शुर सैनी युद्ध स्न्निवास सुयामन:
महाराज शुरसैनी चन्द्रवंशी सम्राट थे इनका राज्य प्राचीनकाल की हस्तिनापुर
(वर्मन दिल्ली क्षेत्र पंजाब तथा मथुरा वृदावन उतर प्रदेश) मे फैला हुआ
था|इसका वर्णन चाणक्य श्रिषी ने चन्द्रगुप्त मोर्य के शासनकाल मे २५० वर्ष
पूर्व था उसका वर्णन कोटील्य अर्थशास्त्र मे किया है की यदुवंश (षैनी)
राज्य एव सूर्यवंशी गणराज्य बिखर चुकाई थे| इन राजपरिवारो के कुछ शासको ने
बोद्ध धर्म ग्रहण कर लिया कुछ एक ने जीविकोपार्जन के लिय कृषि को अपना
लिया|
यूनान
के सिकंदर के साथ जो यूनानी इतिहासकार भारत मे आये थे| उन्होने इतिहास
संकलन करते समय यदुवंशी तथा सैनी राजाओ मे उच्च कोटी की वीरता और क्षोर्य
के साथ साथ उन्हे अच्छ कृषक भी बताया तथा कोटीलय के अर्थक्षास्त्र मे
उल्लेख मिला है की क्षत्रियो मे वैक्ष्य वृति (व्यापर ) करने वाले
बुद्धिजीवी भी थे| रामायण काल के रजा जनक कहती है की हल चलते samay सीता
मिली इस कथा का भाव कुछ भी हो यह घटना इस तथ्य को प्रतिपादित करती है की
रामायण काल के रजा भी खैतिबादो करती थे| प्रसिद्ध साहित्यकार कक्शिप्रसाद
जायसवाल तथा अंग्रेज इतिहासकार कर्नल ताड़ जिसने राजस्थान की जातियों का
इतिहास लिखा है ने क्षुर्सैनी वंश को कई एक ग्न्राज्यो मे बटा हुआ माना है|
इन इतिहासकारों के अलावा चिन देश के इतिहासकार ‘मैग्स्थ्निज’ ने काफी
वर्षो तक भारत मे रहकर यह कई जातियों कई भ्लिभाती जाच कर सैनी गणराज्यों के
बाबत इतिहास मे उल्लेख किया है| इन आर्य शासको का राज्य अर्याव्रता तथा
यूरोप के एनी नगरों तक था| महाभारत कई मासा प्रष्ठ १४९-१५० और वत्स पुराण
अध्याय ४३ शलोक ४५ से यह पता चलता है कई शुरसैनी प्रदेश मे रहने वाले
शुरसैनी लोग मालवे (मध्य प्रदेश) मे जाकर मालव अर्थात माली नाम से पहचाने
जाने लगे| कालान्तर मे इन्ही मालवो मे चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य
हुये जिनके नाम से विक्रम सम्वत चालू हुआ| यह सम्वत छटी शताब्दी से पहले
माली सम्वत के नाम से प्रसिद्ध था| मालव का अपन्भ्रस मालव हुआ जो बाद मे
माली हो गया| ऐसा मत कई इतिहासकार मानते है|
संकलन
करते समय यदुवंशी तथा सैनी राजाओ मे उच्च कोटी की वीरता और क्षोर्य के साथ
साथ उन्हे अच्छ कृषक भी बताया तथा कोटीलय के अर्थक्षास्त्र मे उल्लेख मिला
है की क्षत्रियो मे वैक्ष्य वृति (व्यापर ) करने वाले बुद्धिजीवी भी थे|
रामायण काल के रजा जनक कहती है की हल चलते samay सीता मिली इस कथा का भाव
कुछ भी हो यह घटना इस तथ्य को प्रतिपादित करती है की रामायण काल के रजा भी
खैतिबादो करती थे| प्रसिद्ध साहित्यकार कक्शिप्रसाद जायसवाल तथा अंग्रेज
इतिहासकार कर्नल ताड़ जिसने राजस्थान की जातियों का इतिहास लिखा है ने
क्षुर्सैनी वंश को कई एक ग्न्राज्यो मे बटा हुआ माना है| इन इतिहासकारों के
अलावा चिन देश के इतिहासकार ‘मैग्स्थ्निज’ ने काफी वर्षो तक भारत मे रहकर
यह कई जातियों कई भ्लिभाती जाच कर सैनी गणराज्यों के बाबत इतिहास मे उल्लेख
किया है| इन आर्य शासको का राज्य अर्याव्रता तथा यूरोप के एनी नगरों तक
था|
महाभारत
कई मासा प्रष्ठ १४९-१५० और वत्स पुराण अध्याय ४३ शलोक ४५ से यह पता चलता
है कई शुरसैनी प्रदेश मे रहने वाले शुरसैनी लोग मालवे (मध्य प्रदेश) मे
जाकर मालव अर्थात माली नाम से पहचाने जाने लगे| कालान्तर मे इन्ही मालवो मे
चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य हुये जिनके नाम से विक्रम सम्वत चालू
हुआ| यह सम्वत छटी शताब्दी से पहले माली सम्वत के नाम से प्रसिद्ध था| मालव
का अपन्भ्रस मालव हुआ जो बाद मे माली हो गया| ऐसा मत कई इतिहासकार मानते
है| अब भी पैक्षावर मे खटकु सैनी पायी जाते है| तथा स्यालकोट सन १९४७ से
डोगर सैनियो से भरा हुआ पड़ा था, सैनी शब्द के विवेचन से सैनी समाज के अपने
लोगो को भली भाती ज्ञान चाहिये कई हमारा सैनी समाज सम्वत १२५७ के पर्व
महाराज पृथ्वीराज चोहान भारत मे कितने वैभवशाली एव गोरवपूर्ण थे, अरब देश
के लुटेरे मोहम्मद गोरी जो सम्राट पृथ्वीराज के भाई जयचंद को प्रलोभन देकर
पृथ्वीराज को खत्म कराकर दिल्ली का शासक बन बैठा| इसकी पक्ष्चात भारत पर
लगातार मुस्लिम आक्रताओ ने हमले कर बहरत के तत्कालीन शासको को गुलाम बना
लिया| इसी समय से क्षत्रिय वीर भारत के किसी भी प्रान्त मे संगठित नही रहे|
क्षत्रिय
वीर अलग अलग रियासतो मे मुगलों से विधर्मियों से मिलकर अपनी बहिन बिटिया
मुगलों को देने लगा गये| इससे राजस्थान के राजघराने के राजा अग्रणी रहे
सिवाय मेवाड़ के म्हाराजाओ के| अन्य क्षत्रिय सरदार जो रियासतो के शासक नही
थे किन्तु वीर और चरित्र से आनबान के धनी थे| उन्होने अपनी बहिन बैटिया की
अस्मत बचाने के लिय क्षत्रिय वंश ( कुल छोड़कर ) इन क्षत्रियो से अलग हो
गये| यह क्षत्रिय राजा राजस्थान मे अपना वर्चस्व कायम रखने हेतु अपने ही
भाइयो को जिन्होंने ख्स्त्रिय कुल से अलग होकर दिल्ली के तत्कालीन बादशाह
शहबुदीन मोहम्मद गोरी के पास अपने मुखियाओ को बेचकर कहला भेजा की अब हम
क्षत्रियो से अलग हो गये| हमने अपना कार्यक्षेत्र कृषि अपना लिया| बादशाह
को चाहिये ही क्या था? उसने सोचा कई बहुत ही अच्छा हुआ क्षत्रिय समाज अब
संगठित नहीं रहा, क्षत्रियो कई शक्ति छिन्न भिन्न हो गये| अब आराम से
दिल्ली का बादशाह बना रहूगा | विक्रम सम्वत १२५७ अथार्त आज से ८०० वर्ष
क्षत्रिय समाज राजपूतो से अलग हुये और कृषि कार्य अपना कर माली बने| सैनी
क्षत्रिय जो माली शब्द से पहचाने जाने लगे
जानकारी - http://marwadimali.iwopop.com/About-us
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